ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान के नाम से थर-थर कांपते थे दुश्मन !

लालकिला पोस्ट डेस्क
15 जुलाई को ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान का जन्मदिन मनाया गया। 15 जुलाई, 1912 को ब्रिटिश भारत के आजमगढ़, यूपी में जन्मे ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान के पिता मोहम्मद फारूक खुनाम्बिर पुलिस अफसर थे। उनकी मां का नाम जमीलन बीबी था। ब्रिगेडियर ने 1947-48 के भारत-पाक युद्ध में अहम भूमिका निभाई थी। उनकी बहादुरी भरे कारनामों के लिए उनको नौशेरा का शेर के नाम से पुकारा जाता था। ऐसे में आइए ब्रिगेडियर से जुड़ीं कुछ खास बातें जानते हैं।
ब्रिगेडियर उस्मान के पिता चाहते थे कि उनका बेटा सिविल सर्विस में जाए। लेकिन उन्होंने सेना को चुना। 1920 से भारतीयों को सेना में कमीशन अफसर के तौर पर नियुक्त किया जाने लगा। लेकिन उस वक्त मुकाबला बहुत कड़ा था। उस पद पर बड़े घराने के लोगों को ही तरजीह दी जाती थी। चूंकि ब्रिगेडियर उस्मान तरजीह प्राप्त वर्ग से नहीं थे, इसलिए उन्होंने सैंडहर्स्ट के लिए आवेदन किया और चुने गए। दस अन्य भारतीयों के साथ ब्रिगेडियर उस्मान 1 फरवरी, 1934 को सैंडहर्स्ट से पास हुए।
19 मार्च, 1935 को उनकी नियुक्ति भारतीय सेना में हुई। उनको 10वीं बलूच रेजिमेंट की 5वीं बटालियन में तैनात किया गया। 30 अप्रैल, 1936 को उनको लेफ्टिनेंट की रैंक पर प्रमोशन मिला और 31 अगस्त, 1941 को कैप्टन की रैंक पर। उन्होंने 10वीं बलूच रेजिमेंट की 14वीं बटालियन की अप्रैल 1945 से अप्रैल 1946 तक कमान संभाली। आजादी से पहले ब्रिगेडियर उस्मान बलूच रेजिमेंट में थे। जिन्ना और लियाकत अली खां ने उनको मुस्लिम होने का वास्ता दिया और पाकिस्तानी सेना में आने का ऑफर दिया। उनको पाकिस्तानी सेना का प्रमुख बनाने तक का वादा किया गया। लेकिन उन्होंने उस ऑफर को ठुकरा दिया।
पाकिस्तान ने 1947 में कबायली घुसपैठियों को जम्मू-कश्मीर की देसी रियासत में भेजा। उनका मकसद उस पर कब्जा करना और पाकिस्तान में उसका विलय करना था। उस समय ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान 77वें पैराशूट ब्रिगेड की कमान संभाल रहे थे। उनको 50वें पैराशूट ब्रिगेड की कमान संभालने के लिए भेजा गया, जिसे दिसंबर 1947 में झांगर में तैनात किया गया था। 25 दिसंबर, 1947 को पाकिस्तानी घुसपैठियों ने झांगर पर कब्जा कर लिया। झांगर का काफी रणनीतिक महत्व था, क्योंकि ये ऐसी जगह पर था, जहां मीरपुर और कोटली से सड़कें आती थीं। उस दिन ब्रिगेडियर उस्मान ने झांगर को दुश्मन के कब्जे से आजाद कराने का संकल्प लिया। उनका संकल्प तीन महीने बाद पूरा तो जरूर हुआ. लेकिन उनकी जान की कीमत पर।