कांग्रेस में मॉकटेरियन नेताओं की लम्बी कतार रही

लालकिला पोस्ट डेस्क
कांग्रेस पार्टी की क्या पहचान रही है ? यही न कि यह देश की सबसे पुरानी पार्टी रही है। आजादी की लड़ाई में इसकी संघर्ष गाथा इतिहास के पन्नो में दर्ज है। आजाद भारत में इस पार्टी की लम्बी शासन व्यवस्था रही है। भारत के नव निर्माण में कांग्रेस की सरकार ने महत्वपूर्ण भूमिका दर्ज की है। देश के संविधान की रक्षा करने से लेकर सेक्युलर समाज को कायम रखने में कांग्रेस कीभूमिका अहम रही है। सरकार गिराने और बनाने में भी कांग्रेस का कोई जोर नहीं रहा। लेकिन इसके अलावे कांग्रेस की एक और पहचान रही है है। कांग्रेस धनधारियों और मॉकटेरियनो की भी संगम रही है। जब जब कांग्रेस सत्ता से बहार रही है ,पार्टी टूटती रही है और मॉकटेरियन नेता अपनी सुविधा के मुताविक कांग्रेस से निकलते रहे हैं। ऐसे नेता कांग्रेस के नहीं रहे जो केवल सत्ता के लिए पार्टी से चिपके रहे। हालिया घटना सिंधिया के पार्टी छोड़ने से साफ़ जाहिर हो जाता है कि कांग्रेस को सत्ता लोलुपों ने जमींदोज किया। अब कांग्रेस का भविष्य क्या होगा कहना मुश्किल है। कई राज्यों से यह साफ़ होगी है जबकी कई राज्यों में इसकी हालत क्षेत्रीय पार्टियों की पिछलगू बन कर रह गई है।
सच यही है कि कांग्रेस के लोग सिर्फ सत्ता केसाथ ही कांग्रेस केसाथ जुड़े रहना चाहते हैं। इतिहास को टटोलें तो इसके दर्जनों उदहारण मिल जायेंगे। पार्टी दर्जनों बार टूट चुकी है और सैकड़ों बार पार्टी के लोग अलग हैं। सिंधिया 18 साल तक पार्टी के नेता रहे। 17 साल तक वे सत्ता से जुड़े रहे। सांसद रहे ,मंत्री रहे और पार्टी के वरिष्ठ नेता रहे। लेकिन जैसे ही 2019 के चुनाव में वे हारे ,कुलबुला गए। कांग्रेस पर आरोप लगाकर सिंधिया बीजेपी में चले गए। कांग्रेस में कुछ ऐसी ही भगदड़ 90 के दशक में भी मची थी। साल 1996 में नरसिंह राव की सरकार जाने के बाद पार्टी केंद्र की सत्ता से बाहर थी। सीताराम केसरी यानी गांधी परिवार से बाहर का शख्स अध्यक्ष बना था और पुराने कांग्रेसियों का असंतोष ‘अलविदा’ की शक्ल में बाहर आ रहा था। साल 1996 से 1999 के बीच कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एस बंगारप्पा,ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया, तमिलनाडु के जीके मूपनार,पश्चिम बंगाल की मौजूदा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी,हिमाचल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुखराम,राजस्थान के शीशराम ओला,महाराष्ट्र के शरद पवार और सुरेश कलमाड़ी,बिहार के जगन्नाथ मिश्रा और जम्मू-कश्मीर में मुफ्ती मोहम्मद सईद पार्टी छोड़कर चले गए। अपनी पार्टी बनाई। चुनाव लड़े। हारे जीते लेकिन सच यही है कि ये सब कांग्रेस में ही सींचे गए थे।
इससे पहले और बाद में प्रणब मुखर्जी, नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह और पी. चिंदबरम सरीखे नेता भी हैं जिन्होंने अलग-अलग हालात में कांग्रेस छोड़ी और कई फिर वापस भी आ गए।
कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं में कई पूर्व मुख्यमंत्री भी रहे हैं। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने साल 2016 में कांग्रेस का साथ छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया। साल 2016 में कांग्रेस से निकाले जाने का बाद छत्तीसगढ़ कांग्रेस के इस वरिष्ठ नेता अजीतजोगी ने अपनी अलग पार्टी बना ली। ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री और 9 बार के सांसद गिरिधर गमांग ने 43 साल जुड़े रहने के बाद के बाद साल 2015 में कांग्रेस पार्टी छोड़ दी। इसके अलावे तमिलनाडु के जीके वासन,किशोर चंद्र देब- आंध्र प्रदेश,जयंती नटराजन- तमिलनाडु,एसएम कृष्णा- कर्नाटक,बेनी प्रसाद वर्मा- उत्तर प्रदेश,श्रीकांत जेना- ओडिशा, और शंकर सिंह वाघेला- गुजरात ने भी पार्टी से विदा हो गए।
कांग्रेस छोड़ने वालों में कई पूर्व प्रदेश अध्यक्ष भी शामिल हैं। हरियाणा के अशोक तंवर,उत्तर प्रदेश की रीता बहुगुणा,आंध्र प्रदेश के बोचा सत्यनारायण,असम के भुवनेश्वर कलीता,उत्तराखंड के यशपाल आर्या और बिहार के अशोक चौधरी भी पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में चले गए। नॉर्थ-ईस्ट में कांग्रेस छोड़ने वालों की लंबी फेहरिस्त है। तकरीबन सभी बीजेपी में शामिल हुए। असम के हेमंत बिस्वा सरमा, अरुणाचल प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री पेमा खांडू, त्रिपुरा के सुदीप रॉय बर्मन और मणिपुर के सीएम एन बीरेन सिंह ने अपनी राजनीति बदल ली। आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की लगभग पूरी लीडरशिप जगन मोहन रेड्डी, टीडीपी या बीजेपी के पाले में कूद चुकी है। और खींचें तो हरियाणा से लेकर गोवा और महाराष्ट्र तक ये लिस्ट और लंबी हो सकती है।