करोना वायरस : पीएम मोदी नायक होंगे या खलनायक

लालकिला पोस्ट डेस्क
करोना के दंश से आहात भारत की जनता और विपक्षी पार्टियां सरकार पर हमलावर होगी या सरकार की सराहना करेगी इसको लेकर भी मंथन जारी है। सत्ता पक्ष भी करोना के बाद की राजनीति पर नजर गराये बैठी है और संभावित राजनीति पर गुना भाग कर रही है। इतिहास गवाह है कि देश दुनिया में जब भी कोई बड़ी घटना घटती है और उस घटना की जद में जनता आती है तब नए किस्म की राजनीति शुरू होती है। या तो बदलाव की राजनीति शुरू होती है या फिर मौजूदा सरकार के प्रति जनता में विश्वास की धरना और भी प्रबल हो जाती है। माना जा रहा है कि करोना के बाद की राजनीति एक अलग सवाल पैदा करेगी। बहस का एक नाया स्वर उभरेगा और खासकर मौजूदा स्वास्थ्य व्यवस्था पर नए सिरे से मंथन शुरू होगा। ऐसे में सवाल उठता है कि पीएम मोदी किस रूप में स्थापित होंगे। नायक या खलनायक के रूप में चर्चित होंगे। यह बात और है कि अभी तक कई मसलों पर चुनौतियों का सामना किया है लेकिन मौजूदा करोना ने मोदी सरकार के सामने अब तककि सबसे बड़ी चुनौती पेश की है। देश के स्वस्थ्य सेवाओं की कलई खुल गई है। यह भी साफ़ हो गया है कि आजादी के इतने सालों बाद भी किसी भी सरकार ने सिर्फ राजनीतिक लाभ के कामकिया है। स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने में किसी भी सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं रही है।
यह बात और है कि अभी विपक्ष और खासकर कांग्रेस ने भी करोना के मामले में मोदी सरकार द्वारा लिए जा रहे निर्णयों की सराहना की है और साथ मिलकर इस बीमारी से लड़ने काआह्वान किया है लेकिन बाद में यह मुद्दा राजनीति का केंद्र बन सकता है। मोदी सरकार पर कई सवाल उठाये जाएंगे। कई सवाल पूछे जाएंगे और खासकर स्वास्थ्य सुविधाओं की दुर्गति पर राजनीति होगी। सच यही है कि कोरोना होने के संदेह वाले लोगों की जांच तक की पर्याप्त व्यवस्था देश में नहीं है। गिनी-चुनी जगहों पर जांच हो रही है और उसके लिए भी लोगों को बहुत मशक्कत करनी पड़ रही है। इलाज के मामले भी विकल्प सीमित हैं। लेकिन इसके बावजूद अगर स्थिति खराब होती है तो इसके लिए आम लोग मोदी सरकार को ही जिम्मेदारी ठहराएंगे। बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कार्यशैली भी ऐसी रही है कि वे हर कामयाबी का श्रेय खुद लेते रहे हैं, इसलिए अगर इस मोर्चे पर सरकार नाकाम होती है तो जाहिर सी बात है कि जनता की नजर में उनके खलनायक बनने की बेहद प्रबल आशंकाएं हैं। लेकिन एक दूसरा पक्ष यह भी है कि भारत अगर कोरोना से प्रभावी ढंग से निपटने में सफल रहा और यहां उसका फैलाव उतना अधिक नहीं हुआ तो नरेंद्र मोदी अभी से कहीं बड़े नायक बनकर उभरेंगे। नायक के तौर पर उनका यह उभार सिर्फ भारत में ही सीमित नहीं रहेगा बल्कि वैश्विक स्तर पर उनकी एक सकारात्मक छवि बनेगी।
उदारीकरण के दौर में पूरी दुनिया की सरकारों ने जिन क्षेत्रों को सबसे अधिक निजी क्षेत्र के हवाले छोड़ा है, उनमें शिक्षा और स्वास्थ्य प्रमुख हैं। भारत में भी यही हुआ है। इस दौर में केंद्र में चाहे जिस पार्टी की भी सरकार बनी हो, सबने स्वास्थ्य को निजी क्षेत्र के हवाले छोड़ने की नीति को ही आगे बढ़ाया। राज्य सरकारों ने भी ऐसा ही किया। दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार को एक अपवाद माना जा सकता है। इससे देश में स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा पूरी तरह से चरमरा गया है. गांवों में जो सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र काम करते थे, उनमें से अधिकांश इस वक्त बहुत बुरी हालत में हैं. कुछ अस्पतालों को छोड़ दें तो अधिकांश शहरी सरकारी अस्पताल भी बुनियादी ढांचे के अभाव का सामना कर रहे हैं और यहां निजी अस्पतालों का दबदबा है।
जैसे-जैसे भारत में कोरोना का फैलाव हो रहा है, वैसे-वैसे भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र की कमजोरियां की वजह से इस संकट के और गहराते जाने की बात और स्पष्ट होती जा रही है। स्वास्थ्य क्षेत्र में जिस निजी क्षेत्र को बहुत बढ़ावा दिया गया, आज कोरोना से जंग में उन निजी अस्पतालों की भूमिका न के बराबर है। इसलिए अगर भारत में कोरोना का फैलाव खतरनाक स्तर पर होता है तो जाहिर है कि आने वाले दिनों में जो चुनाव होंगे, उनमें सभी पार्टियों से लोग यह उम्मीद करेंगे कि स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर वे एक स्पष्ट रणनीति सुझाएं। इसका मतलब यह हुआ कि स्वास्थ्य सुविधाएं आने वाले समय में एक चुनावी मुद्दा बन सकती हैं। ऐसी स्थिति में लोगों के स्वास्थ्य को निजी क्षेत्र के अस्पतालों और निजी इंश्योरेंस कंपनियों के हवाले छोड़ने की जो लोक नीति चल रही थी, उसमें स्वाभाविक तौर पर बदलाव होगा और स्वास्थ्य क्षेत्र में सरकार की भूमिका बढ़ाने की ठोस कोशिशें दिख सकती हैं।
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