करोना वायरस की दवाई पर जारी रिसर्च और क्लीनिकल ट्राइयल का खेल

Bottles of Remdesivir in a hospital for COVID-19 patients in Wuhan in central China's Hubei province Wednesday, Feb. 12, 2020. (FeatureChina via AP Images)
लालकिला पोस्ट डेस्क
करोना वायरस के कहर से हलकान मानव समाज ईश्वर केसामने नतमस्तक होकर जान बचने की दुआएँ कर रहा है तो इसी मानव समाज का एक वैज्ञानिक वर्ग इस वायरसे दुनिया को निजात दिलाने के लिए दवाई बनाने के लिए रिसर्च में जुटा है। लेकिन अभी तक कोई खास सफलता नहीं मिली है। दुनिया भर की दवा कंपनी और मेडिकल रिसर्च में लगे लोग इस काम में जुटे हुए हैं कि जितना जल्दी हो सके इस वायरस से लड़ने की दवा तैयार कर ली जाए। इस सिलसिले में दर्जनों दवाओं पर काम हो रहा है। लेकिन सवाल है कि कब तक ये दवाएं तैयार हो सकती हैं। इन दवाओं का ट्रायल में कामयाब होने के कितने चांस हैं।
बता दें कि नई दवाओं के अलावा कोरोनावायरस पीड़ितों के इलाज़ में लगे डॉक्टर पहले से ही मौजूद दवाओं का भी ट्रायल कर रहे हैं। मसलन मलेरिया के इलाज़ के लिए इस्तेमाल होने वाली क्लोरक्वीन का भी ट्रायल किया जा रहा है। इन दवाओं पर बड़े परिक्षण और अध्य्यन चल रहे हैं।
आमतौर पर किसी नई दवा को तैयार करने में कई-कई साल लग जाते हैं। ज़्यदातर मामलों में पूरा दशक या उससे भी ज़्यादा समय लग जाता है। उसके बावजूद कई बार ये दवाएं फ़ेल हो जाती हैं। जहां तक उन दवाओं का सवाल है जो इंफेक्शन इलाज़ के लिए तैयार की जाती हैं उनमें 5 में से 1 ही दवा क्लीनिकल टेस्ट में पास हो पाती है। लेकिन कोरोनावायरस जिस तेज़ी से फैल रहा है दुनिया दशकों तक इंतज़ार नहीं कर सकती।
तो क्या दुनिया को समय रहते कोई ऐसी दवा मिल सकती है जिससे कोरोनावायरस का इलाज़ संभव होगा. अगर हां तो कब तक यह दवा तैयार हो सकती है? इसके अलावा यह भी देखना ज़रूरी होगा कि जब इतनी बड़ी संख्या में लोग इस वायरस से पीड़ित हैं तो दवा का उत्पादन और उसका डिस्ट्रीब्यूशन कैसे होगा ? इस मामले में सबसे महत्वपूर्ण यह समझना होगा कि जिन दवाओं पर रिसर्च चल रही है, उनमें से बहुत सी दवाएं फेल हो सकती हैं।
कोई भी ऐसी दवा जो पहले से मौजूद है उसका उत्पादन कम समय में बढ़ाया जा सकता है। ज़ाहिर है अगर ऐसी कोई दवा कोरोनावायरस का इलाज़ में काम कर सकती है तो इससे मरीज़ों को काफ़ी राहत मिल सकेगी। इस सिलसिले में सबसे ज़्यादा उम्मीद हाइड्रोक्सिक्लोरोक्वीन और क्लोरोक्वीन से है। इन दवाओं का कई देशों के अस्पतालों में ट्रायल चल रहा है। इसके अलावा यूनिवर्सीटि और केलिफ़ोर्निया और यूनिवर्सिटी और वॉशिंगटन में इन दवाओं का ट्रायल हो रहा है। लेकिन इन दवाओं के इस्तेमाल से ठीक होने की जो रिपोर्ट हैं वो बहुत सीमित है। इस बारे में और ज़्यादा रिपोर्ट्स की ज़रूरत है।
कुछ दवाएं और भी बनाई गई थी लेकिन वह इसबीमारी में अभी कारगर सावित नहीं हुआहै .जांच की जा रही है। जैसे रेमेड्सिविर दवा को ही ले लीजिए। इस दवा को इबालो वायरस के इलाज़ के लिए तैयार किया गया था। इस दवा को पिछले साल कोंगो में इबोला के इलाज़ के लिए दूसरी तीन दवाओं के साथ इस्तेमाल किया गया था। यह दवा इबोला के इलाज़ में कुछ ख़ास असर नहीं दिखा पाई थी। इसके बाद इस दवा की उपयोगिता बेहद कम रह गई थी। लेकिन हाल ही में वॉशिंगटन में कोविद -19 के एक पीड़ित की जब हालत ख़राब हो गई तो उसे यह दवा दी गई. इस दवा के बाद इस पीड़ित की हालत में ज़बरदस्त सुधार हुआ। दी न्यू इंगलैंड जरनल ऑफ़ मेडिसिन में यह केस रिपोर्ट किया गया है। इसके अलावा कैलिफोर्निया में भी डॉक्टरों ने दावा किया है कि एक मरीज़ को इस दवा से लाभ हुआ और वो पूरी तरह से ठीक हो गया। लेकिन इस दवा के साथ दो मसले हैं, पहला कि यह दवा बहुत महंगी है और दूसरा ये कि इस दवा का इस्तेमाल बिमारी के लक्षण नज़र आते ही नहीं क्या जा सकता। यह दवा सिर्फ़ वायरस के पूरी तरह से एक्टिव होने पर ही किया जाता है। कुल मिलाकर 80-85 प्रतिशत मरीजों को यह दवा देना संभव नहीं होता है। इस दवा के असर पर ट्रायल रिपोर्ट्स अप्रैल के महीने तक आने की संभावना है.
दूसरी दवा है कोनवल्सेंट प्लाज़मा। पहले से ही इलाज़ का एक तरीका यह रहा है कि किसी वायरस से पीड़ित व्यक्ति को उसी वायरस से ग्रस्त आदमी का प्लाज़मा दिया जाए। यह एक कामयाब तरीका रहा है क्योंकि वायरस से लड़ कर स्वस्थ हुए व्यक्ति में उस वायरस से लड़ने की प्रतिरोध क्षमता पैदा हो जाती है। इसलिए जब ऐसे व्यक्ति का प्लाज़मा पीड़ित व्यक्ति को दिया जाता है तो उसमें भी इम्यूनिटी बढ़ जाती है। उम्मीद की जा रही है कि 9 से 18 महीने में यानि लगभग एक से डेढ़ साल में यह पध्दति उपचार के लिए उपलब्ध हो सकती है। इसके अलावा अर्थराइट्स में इस्तेमाल होने वाली दवा एक्टेमरा जिसे रोस कंपनी बनाती है। एक अनपब्लिशड स्टडी के हिसाब से 21 मरीज़ों पर इस दवा का इस्तेमाल हुआ और उनमें बुख़ार को काबू किया जा सका। अनुमान के हिसाब से इसके असर का परिणाम अप्रैल महीने तक स्पषट हो सकते हैं। इसके अलावा भी दुनियाभर में कोरोनावायरस से जुड़ी रिसर्च चल रही हैं।
कोरोना वायरस यानि की उत्पति को लेकर काफ़ी भ्रम की स्थिति है। अभी तक यह साफ़ नहीं है कि यह चमगादड़ से आया है या फिर पेंगोलिन से आया है। कहीं ऐसा तो नहीं यह वायरस किसी दूसरे ही जानवार से आया हो। या फिर यह वायरस वुहान की एक ऐसी मार्केट से पैदा हुआ जहां नमी रहती थी. या फिर यह वायरस किसी गुफ़ा में पैदा हुआ। यह भी कहा जा रहा है कि शायद पेंगोलिन से यह वायरस आया है।